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सं नु वो॑चावहै॒ पुन॒र्यतो॑ मे॒ मध्वाभृ॑तम्। होते॑व॒ क्षद॑से प्रि॒यम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

saṁ nu vocāvahai punar yato me madhv ābhṛtam | hoteva kṣadase priyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्। नु। वो॒चा॒व॒है॒। पुनः॑। यतः॑। मे॒। मधु॑। आऽभृ॑तम्। होता॑ऽइव। क्षद॑से। प्रि॒यम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:25» मन्त्र:17 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को यथायोग्य विद्या किस प्रकार प्राप्त होनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यतः) जिससे हम आचार्य और शिष्य दोनों (होतेव) जैसे यज्ञ करानेवाला विद्वान् (नु) परस्पर (क्षदसे) अविद्या और रोगजन्य दुःखान्धकार विनाश के लिये (आभृतम्) विद्वानों के उपदेश से जो धारण किया जाता है, उस यजमान के (प्रियम्) प्रियसम्पादन करने के समान (मधु) मधुर गुण विशिष्ट विज्ञान का (वोचावहै) उपदेश नित्य करें कि उससे (मे) हमारी और तुम्हारी (पुनः) बार-बार विद्यावृद्धि होवे॥१७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे यज्ञ कराने और करनेवाले प्रीति के साथ मिलकर यज्ञ को सिद्ध कर पूरण करते हैं, वैसे ही गुरु शिष्य मिलकर सब विद्याओं का प्रकाश करें। सब मनुष्यों को इस बात की चाहना निरन्तर रखनी चाहिये कि जिससे हमारी विद्या की वृद्धि प्रतिदिन होती रहे॥१७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैर्यथायोग्या विद्या कथं प्राप्तव्या इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

यत आवामुपदेशोपदेष्टारौ होतेवानुक्षदस आभृतं यजमानप्रियं मधुमधुरगुणविशिष्टं विज्ञानं संवोचावहै, यतो मे मम तव च विद्यावृद्धिर्भवेत्॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सम्) सम्यगर्थे (नु) अनुपृष्टे (निरु०१.४) (वोचावहै) परस्परमुपदिशेव। लेट्प्रयोगोऽयम्। (पुनः) पश्चाद्भावे (यतः) हेत्वर्थे (मे) मम (मधु) मधुरगुणविशिष्टं विज्ञानम् (आभृतम्) विद्वद्भिर्यत्समन्ताद् ध्रियते धार्यते तत् (होतेव) यज्ञसम्पादकवत् (क्षदसे) अविद्यारोगान्धकारविनाशकाय बलाय (प्रियम्) यत् प्रीणाति तत्॥१७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा होतृयजमानौ प्रीत्या परस्परं मिलित्वा हवनादिकं कर्म प्रपूर्त्तस्तथैवाध्यापकाध्येतारौ समागम्य सर्वा विद्याः प्रकाशयेतामेवं समस्तैर्मनुष्यैरस्माकं विद्यावृद्धिर्भूत्वा वयं सुखानि प्राप्नुयामेति नित्यं प्रयतितव्यम्॥१७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा यज्ञ करणारा व करविणारा प्रेमाने एकत्रित येऊन यज्ञ पूर्ण करतात तसेच गुरु-शिष्यांनी मिळून सर्व विद्या प्रकट करावी. सर्व माणसांनी ही अभिलाषा ठेवावी की आमच्या विद्येची प्रतिदिनी वाढ होत राहावी. ॥ १७ ॥